वाणी का महत्व। vani ka mahtv
वाणी का महत्व
जब वाणी ऋत, हित और मीत होती है तो सबको प्रिय लगती है। अर्थात समय अनुसार बोलना, दूसरों के हित के लिए बोलना और मीठा (मधुर) बोलना। जैसे सत्तू को पानी में घोलने से पहले छलनी में छान कर देख लेते हैं की कोई ऐसी अभक्ष्य वास्तु पेट में ना चली जाए जो विकार उत्पन्न न करें, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति शब्द रूपी आटे को मंत्र रूपी छलनी से छानना जानते हैं। ऐसे ही पुरुष तथा स्त्रियों की वाणी में लक्ष्मी, शोभा और संपत्ति निवास करती है। महर्षि व्यास जी लिखते हैं कि इसलिए पूरी छानबीन करके सब प्राणियों की भलाई करने वाले को सत्य बोलना चाहिए। आप सत्य बोले, लेकिन वह कड़वा नहीं होना चाहिए। ऐसा सत्य बोलने से किसी का हृदय घायल नहीं होगा। अर्थात प्राणी मात्र के लिए हितकारी होगा।
कुछ लोग मित भाषण का अर्थ कम बोलना समझते हैं। मीत शब्द संस्कृत की मांड धातु से बना है जिसका अर्थ है नाप तोल। इस प्रकार मीत का अर्थ है नापतोल कर बोलना ना आवश्यकता से अधिक बोला जाए। और ना ही इतना कम कि शब्दों के कहे का अर्थ ही न निकले। अथर्ववेद में कहा गया है कि मेरी वाणी के अग्रभाग में मधु रहे और जीभ की जड़ अर्थात बुद्धि में मधु का छत्ता रहे जहां मिठास का भंडार है। इसलिए एक नीति कार कहते हैं की तीरों का घाव भर जाता है, तलवार से कटा भाग भी ठीक हो जाता है, किंतु कठोर वाणी का भयंकर घाव कभी नहीं भरता। कहने का तात्पर्य है कि हमारे जीवन में वाणी का विशेष महत्व है। वाणी से ही हमारा जीवन स्वर्ग और नर्क बन सकता है।
आचार्य कश्यप
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