अमृत और विष
पौराणिक कथा है कि देवताओं और असुरों के बीच संयुक्त प्रयास से जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें अमृत भी निकला और विष भी। अमृत तो देव और असुर दोनों पीना चाहते थे, मगर विष पीने के लिए कोई पक्ष तैयार न था। अंत में देवाधिदेव महादेव ने विषपान किया। महादेव ने उसे कंठ में ही रोक लिया। हृदय तक नहीं जाने दिया। हृदय असल में शरीर का वह महत्वपूर्ण अंग है जो रक्त को पहले मस्तिष्क में भेजता है, और मस्तिष्क आवश्यकतानुसार उसका वितरण पूरे शरीर को करता है। ऐसी ही परिस्थितियां प्रत्येक मनुष्य के समक्ष भी आती हैं। जब मनुष्य मां के गर्भ में पलता है तब वह अमृत पान करता है। उसमें सर्वप्रथम मेरुदंड बनता है और उसके बाद मस्तिष्क। जन्म के बाद से शिशु रोता है, क्योंकि मां के गर्भ में हो रहे अमृत पान से वह वंचित होने लगता है। नवजात शिशु जन्म लेते बाहरी घात प्रतिघात का शिकार होने लगता है। प्रारंभिक वर्षों तक वह माता के रूप में जगदीश्वरी और पिता के रूप में जगदीश की छाया में रहता है, परंतु आगे चलकर उस पर काम क्रोध, मोह लोभ तथा नकारात्मक प्रवृत्तियों के असुरों का हमला होने लगता है। देव रूप में जन्मे मनुष्य के मन में आसुरी प्रवृत्तियां प्रभुत्व बनाने लगती हैं। मनुष्य द्वंद में फस जाता है और देव तथा सूर के बीच संघर्ष होने लगता है। फिर घर परिवार से लेकर बाहरी दुनिया के लोगों से घृणा और विवाद आदि होने लगता है। वास्तव में विष का महादेव के भातिं रसपान करना चाहिए। जिस प्रकार महादेव ने विष को गले में ही रोक लिया और हृदय में नहीं जाने दिया, उसी तरह विवेकी मनुष्य को विकारों के विष को ह्रदय की ओर नहीं बढ़ने देना चाहिए, क्योंकि इससे नकारात्मक भावना जागृत होने लगेगी। ऐसी परिस्थिति में बहुमूल्य जीवन निरर्थकता की ओर बढ़ने लगेगा। अतः मनुष्य को भगवान शंकर की तरह नकारात्मक का विष पीकर, संयत रहकर प्रतिक्रिया में अनर्गल कार्य नहीं करना चाहिए।
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