भगवान महावीर
भगवान महावीर
भारत की इस पावन भूमि पर समय - समय पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया है। जिन्होंने सदुपदेशों द्वारा न केवल इस देश का बल्कि समूचे विश्व का कल्याण किया है। ऐसे ही महापुरुष ने आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व जन्म लिया था उनका जन्म बिहार की प्रसिद्ध नगरी वैशाली के निकट बसे कुंडग्राम (कुंडलपुर ) में हुआ। उनके पिता राजा सिद्धार्थ थे तथा माता महारानी त्रिशला देवी थीं। जब महारानी त्रिशला देवी गर्भस्थ थीं तब महाराज सिद्धर्थ के यहां धन - धान्य की बृद्धि होने , लगी इसलिए उनका नाम वृद्धमान रखा गया। आगे चलकर ये भगवान महावीर के नाम से प्रसिद्द हुए। भगवान महावीर जैन धर्म के चौबीसवें एवं अंतिम तीर्थकर थे। उस समय समाज को अनेक बुराइयों ने आ घेरा था। सर्वत्र , हिंसा छल - कपट , अन्याय , अत्याचार , पाखंड व् बाह्म आडंबरों का बोलबाला था। चोरी , डकैती , लूट - खसोट अपनी मानवता जैसे लुप्त - सी हो गई थी। इन विषम परिस्थितियों में मानव जाती के कल्याण हेतु भगवान महावीर जन्म लिया। भगवान् महावीर साढ़े बारह वर्ष तक प्रचंड तपस्या की। भूख , ,प्यास , निद्रा व् आलस्य पर काबू पाया। कई - कई महीनो तक खड़े रहकर ध्यान किया। बाकी समय उपवास करके बिताया। उन्होंने भयंकर कष्ट झेले। उन पर कुत्ते छोडे गए , उन्हें लाठियों व भालो से मारा गया। उन पर थूका गया तरह - तरह की उन्हें गालिया दी गई , परन्तु उन्होंने इनकी कोई चिंता न की और अपने पथ पर अग्रसर रहे। भगवान् महावीर स्वामीजी ने 30 वर्ष तक धर्म प्रचार किया और लोगो को सदमार्ग दिखाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में पटना जिले में गया नामक स्थान पर शरीर त्याग दिया। वास्तव में भगवान् महावीर का चरित्र अनुकरणीय हैं। उनकी बताई हुए बातें और उनके दिखाये गए रास्तो पर चलकर सहज ही परम आनंद की प्राप्ति हो सकती है। आज भी उनके उपदेशों द्वारा मानव जीवन सफल बन सकता है।
1- मन में सदा यह भावना रखनी चाहिए की मेरी सबसे मैत्री हो। किसी से भी वैर न हो।
2- गुनी व्यक्तियों को देखर प्रसन्न होना तथा उनसे संपर्क स्थापित करना।
3- अपने विरोशियों के प्रति तथा बिगड़े हुए व्यक्तियों के प्रति भी द्वेष व् घृणा का भाव न रखना। उनसे प्रेम बनाए रखना या फिर उदासीनता का भाव बनाए रखना।
4- हाथ , पैर , मन व् इन्द्रियों को अपने आपमें समाहित करो।
5- न किसी से डरो और न ही किसी को डराओ।
6- बाहरी युद्धों से क्या ? स्वयं अपने से ही युद्ध करो। अपने से अपने को जीतकर ही सच्चा सुख प्राप्त होता है।
7- ऐसी पुस्तक का अध्ययन अवश्य करें जो आदमी के आत्मिक , शारीरिक , सामाजिक अथवा आर्थिक उन्नति में सहायक हो।
8- क्रोध प्रीति को नष्ट करता है , मान विनय को नष्ट करता है , माया मैत्री को और लोभ सबकुछ नष्ट करता है।
9- मनुष्यों ! सतत जाग्रत रहो। जो जागता है , उसकी बुद्धि बढ़ती है। जो सोता है धन्य नहीं , धन्य वह है , जो सदा जागता है।
10- तपस्वी लाभ में, दुःख में , जीवन और मरण में , निंदा और प्रशंसा में तथा मान और अपमान में संभव रखता है।
11- जन्म दुःख है , बुढ़ापा दुःख यही , रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है। अहो ! संसार दुःख ही है , जिसमे जिव क्लेश प् रहे हैं।
12- बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता , वैसे ही इन्द्रिय - विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता है।
13- खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर बहुत दुःख को भी सुख मानता है , वैसे ही मोहतूर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है।
14- इन पांच स्थानों या कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। 1. अभिमान , क्रोध , प्रमाद , रोग , आलस्य।
15- इन आठ स्थितियों या कारणों से मनुष्य शिक्षाशिल कहा जाता है। - हंसी - मजाक नहीं करना , सदा इन्द्रिय और मन का दमन करना , किसी का रहस्योद्घटन नहीं करना अशील ( सर्वथा आचारविहीन ) न होना , विशील ( दोषो से कलंकित ) न होना , अति रस लौलुप न होना , अक्रोधी रहना , सत्यरत होना।
16- जैसे कछुआ अपने अंगो को अपने शरीर में समेत लेता है , वैसे ही मेधावी ( ज्ञानी ) पुरुष पापो को अध्यात्म के द्वारा समेत लेता है।
17- सांसारिक वस्तुओं को पाशरूप जानकार मुमुक्षु को बड़ी सावधानी से फुक - फुक कर पांव रखना चाहिए। जब तक शरीर सशक्त है तब तक उसका उपयोग संयम - धर्म की साधना के लिए कर लेना चाहिए। जब वह बिल्कुल अशक्त हो जाए तब बिना किसी मोह के मिटटी के ढेले के समान उसे त्याग देना चाहिए।
18- स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधू रात में बहुत नहीं सोते। सूत्र और और अर्थ का चिंतन करते रहने के कारण वे निद्रा के वश नही होते।
19- भूख , प्यास , दुशय्या ( ऊँची - नीची पथरीली भूमि ) ठंड , गर्मी , अरति , भय आदि को बिना दुखी हुए सहन करना चाहिए , क्योकि दैहिक दुखों को संभावपूर्वक सहन करना महाफलदायी होता है।
20- जो शस्त्राभ्यास ( स्वाध्याय ) के लिए अल्प - आहार करते हैं , वे ही आगम में तपस्वी माने गए हैं। श्रुतिविहीन अनशन तप तो केवल भूख का आहार कारना है , भूखे मरना है।
21- सुखपूर्वक प्राप्त किया हुआ ज्ञान दुःख के आने पर नष्ट हो जाता है। अतः योगी को अपनी शक्ति के अनुसार दुखों के द्वारा अर्थात कायक्लेशपूर्वक आत्मचिंतन करना चाहिए।
22- जहां दुःख है न सुख , पीड़ा है न बाधा , मरण है न जन्म , वही निर्वाण है।
23- जहां न इन्द्रियां हैं न उपसर्ग न मोह है न विस्मय , न निद्रा है न तृष्णा और न भूख , वहीँ निर्वाण है।
24- जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात् बचा हुआ भोजन करता है , वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है। वह जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है।
25- अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच महाव्रतो को स्वीकार करके विद्वान् मुनि जिनोपदिष्ट धर्म का आचरण करे।
26- मुनिजन न तो बल या आयु बढ़ाने के लिए आहार करते है , न स्वाद के लिए करते हैं और न शरीर के उपचय या तेज के लिए करते हैं। वे ज्ञान , संयम और ध्यान की सिद्धि के लिए आहार करते हैं।
27- इसी प्रकार काने को काना , नपुंसक को नपुंसक , व्याधिग्रस्त को रोगी और चोर को चोर भी न कहें।
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