prabhu mudrika meli mukh - प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहीं जलधि लांघी गए अचरज नहीं
प्रभु मुद्रिका मेली मुख माहीं।
जलधि लांघी गए अचरज नहीं।।
आपने श्रीराम द्वारा दी गई अंगूठी मुंह में रख समुन्द्र पार किया। परन्तु आपके लिए ऐसा करना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
भगवान् राम ने जो मुद्रिका यानि अंगूठी दी थी उसे लेकर हनुमानजी मसक का रूप धरकर सीताजी के पास गए। मसक यानी मच्छर नहीं। लघुरूप को लक्षणाअलंकार द्वारा मसक कहा गया है यह लघिमा , गरिमा आदि अष्ट सिद्धि नव निधि में आता है। सिद्धियां तो गुरुभक्त की चेरी होती है। जब गुरुभक्त पर गुरु अनुकम्पा होती है तब वह कूटस्थ पर्वत से अपने अंदर प्रवेश कर आज्ञाचक्र की तरफ चलता है। वहीँ से कुछ ही दुरी पर सप्त सागर है। जो कमल दलों से प्रकाशित है। उसका प्रकाश अति सम्मोहक है। मध्य में बैठी है आत्मा। मधुर स्वादिष्ट जल ही क्षीर सागर , दधि सागर का जल है। जिसे गुरुभक्त खेचरी मुद्रा से ग्रहण करता है। वह जल धार बनकर उसके शरीर के कण -कण का पोषण कर नई उमंग से भर देती है। नवजीवन देती है। सिद्धियों का आगमन स्वयं हो जाता है। या सिद्धियां उसे घेर लेती हैं। उसके सोचते कार्य संपन्न हो जाते हैं। हनुमानजी भी इसी प्रकार सोचते ही लंका के समुद्र तट पर पहुंच है। चूँकि उन पर गुरु कृपा बरस रही थी इसलिए सारी सिद्धियां स्वतः उनकी अनुगामिनी हो गयीं। उन्हीं सिद्धियों का प्रयोग कर वे रामजी का सन्देश लेकर सीता माता के पास पहुंचे।
जलधि लाँघि गए अचरज नहीं।।
तात संपाति के निर्देशनुसार दक्षिण दिशा में हनुमानजी सागर - संतरण के लिए आगे बड़े। मार्ग में मैनाक पर्वत था , स्थान - स्थान पर जलमग्न शिलाएं थी। समुद्र स्थिर , जल शांत , सबसे छोटा मार्ग , सर्वथा निर्जन स्थान फिर भी अनेक बाधाएं आई। अथाह जल राशि में संकटों का निर्विघ्न सामना करते हुए वीर पराक्रमी की तरह समुद्र को चरते हुए हनुमानजी आगे बढ़ते गए। उनके गुरु सूर्य उनका मार्गदर्शन करते रहे। नागों की मां सुरसा ने भी उनका मार्ग रोका , उन्हें निगल जाना चाहा परन्तु , वे प्रत्येक आपदा को गुरु के गुरुत्व के सहारे पार करते है। उन्हें हर समय अपने गुरु का स्मरण रहता था। यदि शिष्य गुरु के गुण को ठीक - ठीक अपने में उतर लेता है तब शिष्य में पूर्णतः गुरु ही उतर जाता है। शिष्य निमित रहता है। गुरु कार्य संपन्न करता है। फिर वह अथाह जलराशि को भी लांघ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। यही हनुमानजी के सागर - संतरण का रहस्य है। जब साधक मनरूपी माया को गुरु के चरणों में अर्पित कर देता है , तब वह गोविन्द का कार्य करने में सक्षम हो जाता है। वह क्षण भर में संसार रूपी सागर को पार कर भक्ति रूपी मां जानकी के चरणों में उपस्थित हो जाता है। जिससे अज्ञान रूपी को सौपनें में सक्षम हो जाता है। उसी अग्नि से नए भक्त का प्रादुर्भाव होगा। जो लंका पर सदविप्र समाज का राज्य स्थापित कर सकता है।
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