aapan tej samharo aapai - आपन तेज सम्हारो आपै तीनों लोक हांक ते कापै

आपन तेज सम्हारो आपै। 

तीनों लोक हांक ते कापै।।

आपके वेग को केवल आप ही सहन कर सकते हैं।  आपकी सिंह गर्जना से तीनों लोक कांप उठते हैं।  

 यहाँ तुलसीदासजी कह रहे हैं की हनुमानजी ने अपने तेज को स्वयं संभाल लिया है और इतना संभाल लिया हैं की अब उनकी हांक से उनकी हुंकार से शत्रु की तो सामर्थ्य ही क्या  है तीनो लोक तक कापने लगते हैं।  हम  लोग अपने तेज को नहीं संभाल पाते हैं।  तेज का एक मतलब ब्रह्मचर्य तो है ही।  तेज का एक मतलब समर्थवान भी है।  जब हम सामर्थशाली होते हैं हममें बहुत सी शक्तियां या रिद्धि -सिद्धियां  आती हैं तो अपने सामर्थ का प्रदर्शन कर हम उनका दुरूपयोग करने लगते हैं उससे बहोत से लोगों को बिगाड़ने लगते हैं।  अष्ट सिद्धि नव निधि यह बहुत बड़ी चीज़ नहीं है।  यह साधना के प्रार्थमिक अवस्था है।  चूँकि यह मूलाधारचक्र पर है।  मूलाधारचक्र पर गणेश बैठे हैं और गणेश की पत्नी रिद्धि और शिद्धि बैठी हैं।   प्रथम तल यही है।  बहुत सारे साधक जन्मो जन्म इसी में लगे रह जाते हैं और तुम लोग समझते हो वह बहुत बड़ा साधक हो गया है।  वह साधक जो अपनी रिद्धि सिद्धि का प्रदर्शन करने लगता है उसे कहा गया है दो टके का।  कबीर साहब कहते हैं - सखी रे बहु विषम बाजार बा ,बरा चलै के है। कोई केतनो बोलावे न बोलहिं के है। यह रिद्धि शिद्धि को  कहा गया है।  जब मूलाधार तल से साधक ऊपर बढ़ता है तो रिद्धि सिद्धि बुलाती है - आजाओ स्वामी जी ! यह लेलो वह लेलो।  कबीर साहब कहते हैं - उससे बात मत करो।  कोई कितना भी बुलाए दिखाए उस तरफ देखो भी मत।  तुम लोग को भी दिव्या गुप्त विज्ञान में बताया गया है की कौन कौन से देवता कहाँ -कहाँ हैं।  उनको केवल प्रणाम कर आगे बढ़ जाओ।  रिद्धि सिद्धि के चक्कर में मत पडो।  वह भी बंधन है।  बहुत सारे बाबा जन्मो -जन्म फसे रह जाते हैं।  देखते हो भगवान् राम किसी रिद्धि सिद्धि चक्कर में नहीं पड़े और रावण पड़ गया।  राक्षस हो गया।  जो रिद्धि सिद्धि के चक्कर में पड़  जाता है वही राक्षस हो जाता है और जो रिद्धि सिद्धि को नजर अंदाज कर देता है भिक्षा  से काम चला लेता है रिद्धि और सिद्धि उसकी स्वतः दास हो जाती है। अतः यहां कह रहे है आपन तेज संभारो आपै जो अपने तेज को अपनी गरिमा को अपनी महिमा को संभाल लेगा उसे प्रकट नहीं करेगा तो जाने और अंजाने सृष्टि उससे कापने लगेगी।  सृष्टि उससे  भयभीत होने लगेगी। सृष्टि चाहेगी कब वह मुँह खोले कब यह उसका वाक्य पूरा करे।  लेकिन वह और गुप्त हो जायेगा गुप्ते योग प्रकटे भाड़।  भगवान् शंकर भी कहते हैं  गुप्तं गुप्तं महागुप्तं न च प्रकाशयति।  कहते हैं गुप्त गुप्त महा गुप्त हो जाओ , उसे प्रकाश में मत लाओ।  भगवान शंकर कहते हैं।  

रथ्या विरचित करकट कंथा।  

पुण्य पुण्ये विवर्जित पंथा।।

शून्यागारे तिष्ठित नग्ना। 

शुद्ध निरंजन समरस मग्ना।।

करकट कंथा क्या कहलाता है जानते हो ? औरतें मासिक धर्म में जो कपड़ा प्रयोग कर फेक देती है उसे कहते हैं।  उसका पुनः प्रयोग नहीं होता है इसी को योगी नागोती बनाकर पहन लेते है और भिक्षाटन कर पेट भरते हैं।  विवर्जित प्रथा यानी जिस मार्ग से कोई नहीं आता - जाता उस मार्ग से वह जाते हैं।  समरस मग्ना अथार्त आकाश और पृथ्वी के बिच में नग्न खड़े है।  शून्या गारे तिष्ठित नग्न शून्य में बिलकुल नग्न धडंग खड़े होकर उस परमात्मा के समरस में मग्न हैं।  तुम समझोगे वह पागल हैं , वह पागल नहीं हैं।  आपन तेज संभारो आपै। उसने अपना तेज संभाल लिया है।  इतना संभाल लिया है की इशारा करते ही सृष्टि उसकी इच्छा पर चलती है।  जब तुम भी इस तरह की सिद्धियां प्राप्त करके भी अपने तेज को संभाल लोगे प्रकट नहीं करोगे।  तब यह सृष्टि तुम्हारे इशारे पे नाचेगी कापे गी।  तुलसीदास जी ने इसके मध्यम से अपने साधना के रहस्य को छिपा दिया है।  तुलसीदासजी को ब्राह्मणो ने खूब मारा है पिता है।  उनकी रामायण  जला दिया।  लेकिन उन्होंने अपना पुरुषार्थ प्रकट नहीं किया।  यह भी सुना है रामचंद्र और लक्ष्मण जी उनकी रखवाली करते थे। लेकिन कभी प्रकट नहीं किया।  साधना जब ठीक - ठीक करोगे  , कोई थप्पड़ भी मरेगा तो प्रकट नहीं करोगे।  तुम कहोगे ये कैसा बाबा है कोई मार भी रहा है तो नहीं बोल रहा है। अरे ऐसे बाबा की द्रिष्टि पड़ी नहीं की तुम जल कर भस्म हो जाओगे लेकिन यह दया करता है करुणा करता है।  कहता है - पागल है छोड़ दो जाने दो।  हम क्यों उसके फेर में पड़े।  यदि यह श्राप दे दिया या पि गया , नहीं दिया समझो ब्रम्हा लेख हो गया परमात्मा तुझे कठोर से कठोर दण्ड  देगा।  यह एक विधि का विधान है एक बार सुरदस जी तुलसीदासजी के यहाँ वाराणसी आए।  कहा की - हमें भक्त रविदास से मिला दो।  भक्त भक्त से ही मिलता है।  दोना रविदास के यहां गए।  पता चला कोई बैल मरा  है उसका वे चमड़ा निकलने गए हैं।  वे लोग भी वही चल दिए मिलने के लिए।  वहां पहुंच कर  तुलसीदासजी ने आवाज लगाई - रविदास भगत जी।  देखिये सूरदास जी आये हैं।  वृन्दावन से मिलने के लिए।  रविदास दौड़ते हुए आए की अंक में ले लें।  हाथों में कपड़ो में खून लगा था।  यह देख कर पीछे हटने लगे की आखिर है तो चमार ही सब छुआएंगे हमको जानवर का खून।  रविदास उधर से दौड़ रहे की गले मिल ले वह दोनों पीछे हटते जा रहे हैं।  हट कर के आए अस्सी घाट पर गंगा स्नान किया भगवान् को भोग लगाया।  भगवान् को खिलाने लगे।  भगवान् ने खाया ही नहीं। तुलसीदास पड़े चक्कर में पड़े भगवान् क्या हो गया ? भगवान बोले तुम मेरे भक्त  का अपनमान  कर मुझे भोग लगा रहे हो।  भगवान् ने भोजन ग्रहण  नहीं किया।  दोनों भक्तो ने भी भोजन नहीं किया।  तुम लोग तो तुलसी डालकर घंटी बजाते हो खट से भगवान् खाये या नहीं अपने खाने लगते हो कभी भगवान् के लिए इंतजार भी करते हो।  कहते हो  बहुत जोर भूक लगी है तुम खाओ मत खाओ में तो खा रहा हूं।  अब तुलसीदासजी दुबारा रविदासजी से मिलने गए।  देखा वह अपने घर पर आगये हैं।  फिर पुकारा- रविदासजी हमलोग मिलने आए हैं।  रविदासजी बोले - आगये।  लेकिन इस बार स्वयं आगे नहीं बढे  अपने पडोसी पंडित  को आवाज लगा कर बोले - अरे पंडित जी हमारे यहाँ  अतिथि आये हैं ज़रा मीठा खिलाओ पानी पिलाओ।  तुलसीदासजी - बोले - आज अंक से नहीं मिलोगे।  वह बोले - न न हम तो अभी आएं ही है काम से।  स्नान नहीं किये हैं।  चमार हैं छुआजाएंगे।  इस बार  तुलसीदासजी और सूरदासजी उनसे अंक से मिलने के लिए आगे बड़ रहें हैं वह पीछे खिसक रहें हैं।  अंत में तुलसीदासजी ने दौड़ कर अंक में भर लिया और सूरदासजी ने  दोनों का चरण पकड़ लिया।  त्रिवेणी संगम हो गया और तीनो मस्त  हो गए।  भक्त चाहे चमार का ही काम करे लेकिन उसकी सूरत तो भगवान् के चरण में ही लगी रहती है।  कर से कर्म करहु विधि नाना।  मन राखउ जहाँ कृपा विधाना।। काम तो हाथ कर रहा है लेकिन मन तो उस परमात्मा में लगा हैं।  तुम चमड़ा देख रहो हो वहां चमड़ा नहीं है परमात्मा रंग है।  सम्भवतः उस समय पकड़ लिया होता तो तीनो परमात्मा को उपलब्ध हो गए होते।  लेकिन भक्त अपना तेज अपने आप संभाल लेता है।  भक्त रविदास उस समय वे कभी नहीं कह सकते थे की मै  ही परमात्मा हूँ क्यों भाग रहे हो ?वह तो  बिल्कुल चमार  ही बनकर रहेगा।  कहेगा - जात चमार,  पंडित जी हम नहीं पिलायेंगे।  यही अपना तेज संभालना।  तुम लोग केवल पाठ कर लेते हो समझते नहीं इतनी बड़ी साधना की बात कहि है तुलसी दासजी ने।  जब तुम अपने तेज को अपनी शक्ति को , अपने पौरुष को संभालने  में सक्षम हो जाओगे। तब तुम सृष्टि का नियंता बन जाओगे। 

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