jug sahsr jojan par bhanu - जुग सहस्र जोजन पर भानु लील्यो ताहि मधुर फल जानू
जुग सहस्र जोजन पर भानु।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
जो सूर्य हजारों योजन पर दूर है , जहां तक पहुंचने में हजारो युग लग जाते हैं , उस सूर्य को आपने मीठा फल समझकर निगल लिया।
तुलसीदासजी संस्कृत के विद्वान थे। वे यहां लक्षणाअलंकार का प्रयोग कर हैं। अतिश्योक्ति की बात कह रहे हैं , जिसे तुम सत्य मान रहे हो। वह मुस्लिम काल था। मुसलमानों के नबी ने प्रचारित किया की हमारा एक नबी ने प्रचारित किया की हमारा एक नबी ऐसा था जो दाहिना हाथ बढाकर समुद्र से मछली पकड़ लेता था। , फिर हाथ बढाकर सूर्य में उसको पका लेता था। मुसलमानों का नबी इतना बड़ा है तो यह सुनकर हिन्दुओं का पलायन शुरू हो गया , वे ही तुलसीदासजी ने यहां लक्षणा अलंकार का सहारा लेकर उनको अपने भगवान् की महत्ता दर्शायी की तुम्हारा नबी जो चमत्कार करता है उससे बढ़कर कार्य तो हमारे भगवान् का शिष्य जो एक वानर है वही कर देता है। वह हजारों योजन ऊपर जो सूर्य है जो पृथ्वी से भी कई गुना बड़ा है , उसे बचपन में ही उसने अपने मुख में निगल लिया। ऐसी लंबी छलांग लगाई की सीधा सूर्य तक पहुंच गया और उसे मधुर फल समझ कर खा लिया। जब देवताओं ने आकर प्राथना की तब उन्हें छोड़ा।
देवन आणि करि विनती तब। छांड़ि दियो रवि कष्ट निवारो।।
अपने धर्म की रक्षा के लिए , अपनी असिमता की रक्षा के लिए तुम जो कुछ भी करते हो वह ठीक है। उस काल में मुसलमानों द्वारा मिन्दिरो को तोड़ा गया तो तुलसीदासजी ने सगुण धर्म का प्रचार किया। कहा की मंदिर तोड़ देने से इतना मत चिंतित हो जाओ की तुम मुसलमान हो ही गए , धर्मच्युत हो ही गए। वह धर्म तुम्हारे साथ है , वह शाश्वत रहता है। पंद्रहवी -सोलहवीं शताब्दी में संत संप्रदाय ने विभिन्न रूपों में प्रचार किया है। तुलसीदास व् कबीर दस उसी काल के संत हैं। तुलसीदासजी ने धर्म की रक्षा के लिए यहां लक्षणाआलंकार द्वारा अतिश्योक्ति की बात कही -
बाल समय रवि भक्षी लियो तब , तीनहुं लोक भयो अंधियारो।
ताहि सो त्रास भयो जग को , यह संकट काहु सो जात न टारो।
देवन आनि करि विनती तब,छाँड़ि दिया रवि कष्ट निवारो।।
दिवताओं की प्रार्थना पर सूर्य को हनुमानजी ने छोड़ा। तुम्हारे नबी से शक्तिशाली तो हो ही गए न। जब साधक कुण्डलिनी यात्रा पर निकलता है , तब वह शिशु की तरह होता है। उसे आज्ञा चक्र का प्रकाश नवोदित सूर्य के तरह दीखता है। उसे प्राप्त करने , आत्मसात करने हेतु अति आनन्द से उछलता है। उसी में अपने को विलीन कर देता है। गुरु अनुकम्पा से समाधी से बाहर आता है। अब उसे वह सूर्य बाहर -भीतर , सर्वत्र द्रिष्टि गोचर होने लगता है। आप किसी समर्थ सद्गुरु के शरण में जाकर इस कला को सिख सकते हैं। तुलसीदासजी सिद्ध साधक भी थे। इसलिए अपने अनुभव को विभिन्न माध्यमों से हमारे लिए व्यक्त कर रहे हैं। जिससे साधक लाभवन्तित हो सकें।
सम्पूर्ण आत्मज्ञान awakeningspiritual.blogspot.com पर मिलेगा।
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